निंदा हो या प्रशंसा मात्र तरंगे ही तो हैं।
🌷"निंदा के शब्द"🌷
जब हमारे कानो को स्पर्श करते हैं तो अपने पुराने संस्कारो से प्रभावित हुई संज्ञा उनका अधोमुल्यन करती है और इन शब्दों को बुरा मान लेने के कारण शरीर में अप्रिय, दुखद संवेदना उत्पन्न होती है।
उसी के परिणाम स्वरुप अज्ञान अवस्था में हमारे मानस का एक हिस्सा दुर्मन हो उठता है।
द्वेष, क्रोध, कोप की प्रतिक्रिया करने लगता है।
🌷"प्रशंसा के शब्द"🌷
हमारे कानो को स्पर्श करते है तो यह संज्ञा उनका उध्र्वमूल्यन करती है, और उन शब्दों को अच्छा मान लेने से शरीर में प्रिय- सुखद संवेदना उत्पन्न होती है।
उसी के परिणाम स्वरुप हमारे मानस का एक हिस्सा प्रफुल्लित हो उठता है और राग, लोभ, आसक्ति की प्रतिक्रिया करने लगता है।
प्रतिक्रिया चाहे राग की हो या द्वेष की मानस अपनी समता खो बैठता है और विकार पर विकार जगते ही जाते हैं।
हमारी विपश्यना छूट जाती है।
🌷 निंदा या प्रशंसा सुनकर राग या द्वेष जगाते है तो हम ओरो की हानि करे या न करें, अपनी हानि तो अवश्य करते हैं। अतः इससे बचे और धर्मपथ पर प्रगतिशील बने रहे और अपना मंगल साधते रहें।
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